आदर्श प्रकार की विशेषताएं क्या है? | Adarsh Prarup Ki Visheshtayen Bataiye

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नमस्कार दोस्तों आज की इस लेख में हम आपको Aadarsh Prarup Ki Visheshtayen   के बारे में जानकारी देने वाले हैं। आदर्श प्रारूप की विशेषताएं  B.A. की डिग्री करने वाले विद्यार्थियों के लिए अति महत्वपूर्ण प्रश्न है।

इसके बारे में आपको जानना बहुत ही आवश्यक है। इसलिए आपके लिए यह प्रश्न लेकर आए हैं तो चलिए शुरू करते हैं आदर्श प्रारूप की प्रमुख विशेषताओं के बारे में जानकारी।

आदर्श प्रारूप की विशेषताएं| Aadarsh Prarup Ki Visheshtayen In Hindi

आदर्श प्रारूप की विशेषताएं स्पष्ट कीजिए | Aadarsh Prarup Ki Visheshtayen In Hindi

इस आर्टिकल में आपको एक Aadarsh Prarup Ki Visheshtayen के बारे में बताएंगे। यह प्रश्न b.a. तृतीय वर्ष के समाजशास्त्र विचारक विषय में है। इस आर्टिकल में इस प्रश्न का उत्तर विस्तार पूर्वक मिल जाएगा। इसलिए इस प्रश्न के उत्तर को ध्यानपूर्वक पढ़ें क्योंकि यह प्रश्न परीक्षा में पूछा जा सकता है। तो चलिए फिर शुरू करते हैं।

आदर्श प्रारूप की महत्वपूर्ण विशेषताएं (Aadarsh Prarup Ki Visheshtayen)

मैक्स वेबर द्वारा प्रतिपादित आदर्श प्रारूप की महत्वपूर्ण विशेषताएं निम्नलिखित हैं-

1. आदर्श प्रारूप में जो कुछ है उसका वास्तविक जीवन में होना अनिवार्य नहीं ➡

वेबर ने आदर्श प्रारूप को यथार्थ से भिन्न कहा है क्योंकि संपूर्ण यथार्थ को समझाना समाजशास्त्री के लिए संभव नहीं है। समाजशास्त्री जिस क्षेत्र और काल में समाज के विशिष्ट अंग को देखता है उसी के आधार पर आदर्श प्रारूप बनाता है।

यही कारण है कि आदर्श प्रारूप के कुछ लक्षण वास्तविक घटना में मिल भी सकते हैं और नहीं भी मिल सकते हैं।

जैसे यदि हम पूंजीवाद के आदर्श प्रारूप को लें तो इसमें हम पूंजीवाद के कुछ लक्षणों को सम्मिलित करते हैं। लेकिन यदि हम अमेरिका अथवा भारत में पूंजीवाद को साकार रूप में देखते हैं तो यह भी हो सकता है कि आदर्श प्रारूप के कुछ लक्षण इसमें नहीं मिलें। आदर्श प्रारूप तो विवेकपूर्ण कार्य-कारण पर बनता है जबकि यथार्थ बराबर बदलता रहता है।

2. आदर्श प्रारूप का संबंध नैतिक रूप से किसी आदर्श से नहीं होता ➡

आदर्श प्रारूप का अर्थ किसी भी रुप में नैतिक-आदर्शों से नहीं है। यह एक प्रकार की विशिष्ट श्रेणी है जिसका प्रयोग किसी भी घटना को समझने के लिए किया जाता है।

कोजर ने लिखा है, एक आदर्श प्रारूप धर्म गुरु का भी हो सकता है और एक बदनाम वेश्या का भी हो सकता है। यहां आदर्श से तत्पर्य किसी तर्क के अंतिम छोर से है।

3. आदर्श प्रारूप में मूल्य नहीं होते ➡

आदर्श प्रारूप में अनुसंधानकर्ता के मूल्य मौजूद न होने के कारण ही वेबर इसको आदर्श कहते हैं। उदाहरण के लिए जब हम हिंदू धर्म के अध्ययन के लिए आदर्श प्रारूप बनाते हैं तो वह मात्र एक सांस्कृतिक संस्था का अध्ययन करता है न कि इस बात का कि हिंदू धर्म में यह होना चाहिए और ऐसा नहीं होना चाहिए।

4. आदर्श प्रारूप प्राक्कल्पनात्मक होता है➡

आदर्श प्रारूप वास्तविकता या यथार्थ नहीं है। ऐसी स्थिति में जबकि आदर्श प्रारूप मूल्यों के अभिस्थापन पर आधारित है, अनुसंधानकर्ता प्रघटना के बारे में अपनी प्राक्कल्पनाएं बनाता है।

ऐसा भी हो सकता है कि आदर्श प्रारूप द्वारा दी गई प्राक्कल्पनाओं का संबंध उन परिणामों से हो जो प्रघटनाओं के कारण पैदा होते हैं।

जैसे यदि हम आधुनिक पूंजीवाद के मूल कारणों को जानना चाहते हैं तो हमें प्रोटेस्टेंट धर्म के ऐसे आदर्श प्रारूप को बनाना चाहिए जो सुधारवाद के परिणामस्वरूप इसमें आए हों। लेविस कोजर ने आदर्श प्रारूप की महत्वपूर्ण विशेषता उसकी प्राक्कल्पनात्मक प्रकृति को बताया है।

जूलियेन फ्रेंड (Julien Freund) ने लिखा है, "यद्यपि आदर्श प्रारूप यथार्थ नहीं होता फिर भी यह हमें एक ऐसी अवधारणात्मक युक्ति को देता है जिसकी सहायता से हम आनुभाविक यथार्थ के विकास को समझ सकते हैं, इसका विश्लेषण कर सकते हैं।"

5. आदर्श प्रारूप का निर्माण कर्ता की क्रिया के इच्छित अर्थ के अनुसार किया जाता है➡ 

आदर्श प्रारूप में वैज्ञानिक के दृष्टिकोण से जो अर्थ एक क्रिया का है, वह उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना कि उस क्रिया को करने वाला कर्ता उस क्रिया का अर्थ लगाता है। जर्मन भाषा में इसे 'Verstehen' कहा जाता है। वेबर के अनुसार आदर्श प्रारूप के निर्माण में अनुसंधानकर्ता को क्रिया के इस अर्थ को अवश्य समझना चाहिए।

6. आदर्श प्रारूप सब-कुछ का विश्लेषण या वर्णन नहीं➡

आदर्श प्रारूप के द्वारा सब कुछ का विश्लेषण न करके एक घटना या क्रिया के अत्यंत महत्वपूर्ण पक्षों का निरूपण किया जाता है। यही कारण है कि आदर्श प्रारूप में कुछ तत्वों को समानता के आधार पर विशुद्ध रूप में प्रस्तुत किया जाता है तथा असंबद्ध बातों को जानबूझकर छोड़ दिया जाता है।

वेबर के अनुसार आदर्श प्रारूप को केवल सामाजिक क्रिया के प्रतिमान के तर्कसंगत तत्वों की ही व्याख्या करनी चाहिए और जो कुछ भी तर्कसिद्ध नहीं है उन्हें या तो छोड़ देना चाहिए या भ्रांत-तर्क आदि के रूप में विचार किया जाना चाहिए। यह विशेषता समाजशास्त्र को विज्ञान के रूप में स्थापित करने में सहायक है।

7. आदर्श प्रारूप अंतिम लक्ष्य या साध्य नहीं➡

मैक्स वेबर ने इस बात पर भी हमारा ध्यान केंद्रित किया है कि सामाजिक विज्ञान का अंतिम लक्ष्य आदर्श प्रारूप को ढूंढ निकालना नहीं है बल्कि इसे तो केवल ऐतिहासिक समस्याओं के विश्लेषण के लिए साधन या उपकरण के रूप में प्रयोग करना चाहिए।

मैक्स वेबर का विश्वास है कि सामाजिक क्षेत्र में किसी भी प्रकार के स्थिर सिद्धान्त की प्रणाली संभव नहीं है।

सामाजिक समस्याएं परिस्थिति के अनुसार भिन्न होती हैं तथा इन समस्याओं का प्रारूप अनुसंधानकर्ता के विशिष्ट दृष्टिकोण से संबंधित होता है अतः उनके समाधान हेतु  आदर्श प्रारूपों को अंतिम मान लेना उचित नहीं है।

8. एक ही घटना के अध्ययन हेतु अनेक आदर्श प्रारूप➡

चूँकि एक वैज्ञानिक का उद्देश्य प्रत्येक पहलु से सामाजिक घटना को समझने का होता है इसलिए वह एक घटना को समझने के लिए अनेक आदर्श प्रारूपों का निर्माण कर सकता है।

उदाहरण के लिए समाज वैज्ञानिक ईसाई धर्म को समझने के लिए एक आदर्श प्रारूप का निर्माण करता है तो हो सकता है कि वह ईसाई धर्म पर कई आदर्श प्रारूप बनाए।

एक प्रारूप आदिम ईसाई धर्म पर दूसरा मध्यकालीन ईसाई धर्म पर एवं तीसरा कैथोलिक या प्रोटेस्टेंट धर्म के स्वरूपों पर।

यह भी संभव है कि इस प्रकार बनाया गया कोई एक आदर्श प्रारूप दूसरे आदर्श प्रारूप से अलग हो लेकिन सभी आदर्श प्रारूपों में यह बात अनिवार्य रूप से होगी कि प्रत्येक आदर्श प्रारूप के द्वारा ईसाई धर्म को समझना है।

स्पष्ट है कि अनुसंधानकर्ता के किसी भी घटना के बारे में जितने विचार होंगे उतने ही आदर्श प्रारूप निर्मित किए जा सकते हैं।

9. आदर्श प्रारूप बोधगम्यता को बढ़ाते हैं➡

आदर्श प्रारूप का उद्देश्य अस्पष्टता व अनिश्चितता को दूर करके अध्ययन को अधिक से अधिक बोधगम्य व प्रामाणिक बनाना है, क्योंकि जब अनुसंधानकर्ता तार्किक आधार पर प्रघटनाओं के बारे में आदर्श प्रारूप बनाते हैं तो प्रघटना के संबंध में हमारी जानकारी बढ़ती है व प्रघटना से संबंधित बोधगम्यता में वृद्धि होती है।

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10. आदर्श प्रारूप का आधार मूल्य अभिस्थापन होता है➡

जुलियेन फ्रेण्ड ( Julien Freund )  का मानना है कि आदर्श प्रारूप अपने केंद्रीय रूप में मूल्य अभिस्थापन से जुड़ा होता है। चूँकि कोई भी अनुसंधानकर्ता कभी भी संपूर्ण समष्टि के यथार्थ को नहीं जान सकता क्योंकि समष्टि अनंत है।

हमारी यथार्थता का ज्ञान आंशिक होता है। आदर्श प्रारूप को बनाते समय अनुसंधानकर्ता का समाज की वस्तुओं और विचारों के बारे में जो मूल्य अभिस्थापना है वह आदर्श प्रारूप में अवश्य होता है।

फलतः हम जिस आंशिक यथार्थ को समझते हैं वह पूर्ण यथार्थ नहीं होता, लेकिन एक सीमा तक यथार्थ के निकट अवश्य होता है।

11. आदर्श प्रारूप ना तो सत्य होता है और न झूठ➡

आदर्श प्रारूप का निर्माण इसलिए किया जाता है ताकि स्पष्ट रूप से इस शोध प्रणाली के माध्यम से हम जिस भी विषय वस्तु का अध्ययन करते हैं उसके संबंध में जानकारी प्राप्त कर सकें। जुलियेन फ्रेण्ड ( Julien Freund) ने लिखा है, " आदर्श प्रारूप एक प्रकार की विशुद्ध प्रयोगात्मक प्रविधि है, जिसका निर्माण समाज वैज्ञानिक अपने मनमाने ढंग से करता है।

इसके निर्माण का कारण केवल खोज करना होता है। यदि कोई आदर्श प्रारूप समाज वैज्ञानिक के अनुसंधान में कारगर सिद्ध नहीं होता तो बिना किसी हिचक के वह उसे फेंक देता है।

वास्तव में यदि किसी अनुसंधान में आदर्श प्रारूप सहायक नहीं होता है तो अनुसंधानकर्ता दूसरे आदर्श प्रारूप का निर्माण कर सकता है। अनुसंधान में किसी भी तकनीकी यंत्र की तरह आदर्श प्रारूप या तो उपयोगी होते हैं या अनुपयोगी।

धन्यवाद...

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